मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

...रिश्तो कि डोर (चलते-चलते)

युँ ही अचानक एक दिन यह ख्याल आया मेरे मन में कि जीवन की इस लंबी राह पर चलते-चलते 
एसा क्यों होता हे कि सब साथ होकर भी साथ नही होते हे .
अपनो का अपनापन जब देता हे गहरी उदासी तो अतंर्मन को चीरती हुई रिश्तों की दुहाईयाँ और 
भर देती हे अंदर तक एक गहरी एकाकी.
एक वक्त जब ऐसा भी होता हे कि दूर होकर भी सब अपने लगते हें बहुत करीब  .
और कभी-कभी सबके साथ होने पर भी देते हें दूरी का एह्सास .
समय के साथ बहती इस जीवन रूपी नदी मे क​ई मोड आते हें .वक्त के साथ ढलते-ढलते लगता
हे कि इंसानी जीवन भी नदी कि गति के समान हे .लगता हे कि परिस्थितियों से समझोता ही
जीवन की नियति हे .पर मन की उलझन ये सोचने पर मजबूर कर देती हे कि जिन रिशतों से
होती हे इस मानव जीवन की शुरुआत एक नन्ही सी किलकारी के रूप में फिर उन्ही रिशतों में
अनकही दूरियाँ,और कडवाहटें क्यों आ जाती हें .
क्यों इंसान अपनो से भागने पर मजबूर हो जाता हे .और एक नयी राह तलाशने को मजबूर हो
जाता हे .अंजान लोगों में सुख की खोज करता हुआ कब नशे कि गिरफ्त में आ जाता हे वो खुद 
नहीं जान पाता .
अपनो की  पास होकर भी दूरी उसके अंतर्मन में एक गहरी खामोशी को जन्म दे देती हे .
आज के इस दौर में तरक्की और आगे बढने के नाम पर इंसान खुद से और अपनी इंसानियत से 
पीछे होता जा रहा हे .
हर दिन बढती इस अंदरूनी खामोशी को पाटने के लिये कोई लेता हे शराब का सहारा तो कोई
दवाईयों का .
इस तरह इंसान एक दिन और एक दिन आगे बढता जा रहा हे यही सोचकर कि कभी तो अपनो 
को होगा अपनो के अपने होने का एहसास  .और फिर चलते-चलते जीवन गुजरता जाता हे .
अपनो के निशचल प्यार के इंतजार में
                                               ...राधा श्रोत्रिया"आशा"

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