शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2014

***** मन में *******

******* मन में *********
सबके साथ ,
होकर भी खामोशी,
घायल कर जाती है !
जन्म देती है ,
एक अंजाने से डर को,
मन में ----
दिन रिसते हुये जख्म जैसा,
रात आकर नमक का मरहम ,
लगा जाती है !
सन्नाटों में चीखती आवाजें,
रात से भागने को ,
मजबूर करती हैं !
साथ तो सब हैं अपने,
पर अब अपनों में,
अपनायत कहाँ हैं!
मन में-----
तलाश्ते हैं साथी कोई,
जो बन मरहम
सहलाये
अपनों से मिले ज़ख्म !
क्यों सच से ,
भागते हैं सारे !
शोर -गुल ये हँसी
ठहाके,
मिथ्या हैं कुछ पल की !
अकेलापन तो ,
साथी है सच्चा!
डरते हैं उसी से ,
जो चाहें भी तो
नही छोड़ता!
न जाने किस तरह ,
बस गया है!
मन में---------
...राधा श्रोत्रिय​"आशा"
४-१०-२०१४

4 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर प्रस्तुति...
    दिनांक 16/10/2014 की नयी पुरानी हलचल पर आप की रचना भी लिंक की गयी है...
    हलचल में आप भी सादर आमंत्रित है...
    हलचल में शामिल की गयी सभी रचनाओं पर अपनी प्रतिकृयाएं दें...
    सादर...
    कुलदीप ठाकुर

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